भोलेनाथ का परम भक्त था भृंगी, जानिए कथा
आप सभी ने महादेव के गणों में भृंगी की कथा तो जरूर पढ़ी या सुनी होगी, क्योंकि भोलेनाथ के गणों में इनका विशेष स्थान है। हालाँकि आपको जानकर हैरानी होगी कि नारी की उत्पत्ति का भी श्रेय कहीं न कहीं इन्हें ही जाता है? जी दरअसल ऐसी एक कथा मिलती है जहां शिवजी के परम भक्त भृंगी ने जब मां पार्वती और भोलेनाथ को अलग समझा तो उन्हें कैसे शाप भोगना पड़ा? इसी के साथ ही उन्हें नारी का महत्व समझाने के लिए भोलेनाथ ने कैसी लीला रची? कहा जाता है भृंगी महादेव के गणों मे विशेष स्थान रखते हैं। जहाँ शिव होंगे वहां गणेश, नंदी, श्रृंगी, भृंगी, वीरभद्र का वास स्वयं ही होगा। वहीं भोलेनाथ और माता पार्वती के साथ उनके ये गण हमेशा साथ चलते हैं। कहते हैं भृंगी की खास बात यह हैं कि उनके तीन पैर हैं। आपको बता दें कि शिव विवाह के लिए चली बारात में उनका जिक्र मिलता हैं 'बिनु पद होए कोई।। बहुपद बाहू' (यानी शिवगणों में कई बिना पैरों के थे और किसी के पास कई पैर थे) यह पद तुलसीदासजी ने भृंगी के लिए ही लिखा है।
हालांकि उन्हें ये तीसरा पैर शाप से राहत पाने के लिए मिला था। कहा जाता है भृंगी महान शिवभक्त थे और भोलेनाथ के चरणों के प्रति उनका प्रेम अनन्य था। कहा जाता है कि उन्होंने सपने में भी शिव के अतिरिक्त किसी का ध्यान नहीं किया था। यहां तक कि वह देवी पार्वती को भी शिव से अलग मानते थे। उनके मन में हमेशा 'शिवस्य चरणम् केवलम्' का ही भाव रहता था और उनकी बुद्धि यह स्वीकार ही नहीं करती थी कि शिव और पार्वती में कोई भेद नहीं है। इसी वजह से एक बार भृंगी ने एक अनुचित जिद की तब उन्हें समझाने के लिए भोलेनाथ और मां पार्वती को अर्द्धनारीश्वर रुप धारण करना पड़ा। एक कथा मिलती है जिसके अनुसार एक बार भृंगी भोलेनाथ की परिक्रमा करने कैलाश पहुंचे। वहां हमेशा की तरह महादेव के बाईं जंघा पर आदिशक्ति विराजमान थीं। महादेव समाधि में थे और पार्वती चैतन्य थीं, उनके नेत्र खुले थे।
भृंगी शिव प्रेम में मतवाले हो रहे थे। वह केवल शिवजी की परिक्रमा करना चाहते थे क्योंकि ब्रह्मचर्य की उनकी परिभाषा अलग थी। उन्हें लगा कि पार्वतीजी तो शिवजी के वामांग में विराजमान हैं। ऐसे में वह कैसे परिक्रमा करें। तब उन्होंने मां पार्वती से कहा कि वह शिवजी से अलग होकर बैठें ताकि वह परिक्रमा कर सकें। तब देवी पार्वती समझ गईं कि यह है तो तपस्वी लेकिन इसका ज्ञान अधूरा है। तब उन्होंने भृंगी की बात को अनसुना कर दिया। लेकिन वह अपनी हठ में ही थे। बार-बार मां से हटने के लिए कहने लगे। तब मां पार्वती ने इसपर आपत्ति जताई और कहा कि अनुचित बात बंद करो। पहले तो उन्होंने भृंगी को कई तरह से समझाया, प्रकृति और पुरुष के संबंधों की व्याख्या की। वेदों का उदाहरण दिया लेकिन भृंगी थे जो समझने को तैयार ही नहीं हो रहे थे। जब माता ने बात को अनसुना कर दिया तब भृंगी ने सर्प का रुप धारण किया और शिवजी की परिक्रमा करने लगेसरकते हुए वह देवी पार्वती और महादेव के बीच से निकलने का यत्न करने लगे। उनकी इस धृष्टता का परिणाम हुआ कि शिवजी की समाधि भंग हो गई। उन्होंने समझ लिया कि मूर्ख पार्वती को मेरे वाम अंग पर देखकर विचलित है।
वह दोनों में भेद कर रहा है। इसे सांकेतिक रूप से समझाने के लिए शिवजी ने तत्काल अर्द्धनारीश्वर स्वरुप धारण कर लिया। पार्वती अब उन्हीं में विलीन हो गईं थी। जब माता ने बात को अनसुना कर दिया तब भृंगी ने सर्प का रुप धारण किया और शिवजी की परिक्रमा करने लगेसरकते हुए वह देवी पार्वती और महादेव के बीच से निकलने का यत्न करने लगे। उनकी इस धृष्टता का परिणाम हुआ कि शिवजी की समाधि भंग हो गई। उन्होंने समझ लिया कि मूर्ख पार्वती को मेरे वाम अंग पर देखकर विचलित है। वह दोनों में भेद कर रहा है। इसे सांकेतिक रूप से समझाने के लिए शिवजी ने तत्काल अर्द्धनारीश्वर स्वरुप धारण कर लिया। पार्वती अब उन्हीं में विलीन हो गईं थी। शरीर विज्ञान की तंत्रोक्त व्याख्या के अनुसार इंसान के शरीर में हड्डियां और पेशियां पिता से मिलती हैं, जबकि रक्त और मांसमाता के अंश से प्राप्त होता है। तब शाप मिलते ही भृंगी की दुर्गति हो गई। उनके शरीर से तत्काल रक्त और मांस अलग हो गया। शरीर में बची रह गईं तो सिर्फ हड्डियां और मांसपेशियां। मृत्यु तो हो नहीं सकती थी क्योंकि वो अविमुक्त कैलाश के क्षेत्र में थे और स्वयं सदाशिव और महामाया उनके सामने थे।
उनके प्राण हरने के लिए यमदूत वहां पहुंचने का साहस ही नहीं कर सकते थे। असह्य पीड़ा से भृंगी बेचैन होने लगे। क्योंकि ये शाप भी आदिशक्ति का दिया हुआ था और उन्होंने ये शाप भृंगी की भेदबुद्धि को सही रास्ते पर लाने के लिए दिया था। इसलिए महादेव भी बीच में नहीं पड़े। शाप के चलते भृंगी समझपाए कि पितृशक्ति किसी भी सूरत में मातृशक्ति से परे नहीं है। माता और पिता मिलकर ही इस शरीर का निर्माण करते हैं। इसलिए दोनों ही पूज्य हैं। इसके बाद भृंगी ने असह्य पीड़ा से तड़पते हुए मां की पूजा की।
माता तो माता होती है। उन्होंने तुरंत उनपर कृपा की और पीड़ा समाप्त कर दी। माता ने अपना शाप वापस लेने का उपक्रम शुरू किया लेकिन धन्य थे भक्त भृंगी भी। उन्होंने माता को शाप वापस लेने से रोका। भृंगी ने कहा हे माता मेरी पीड़ा दूर करके आपने बड़ी कृपा की है। लेकिन मुझे इसी स्वरुप में रहने दीजिए। मेरा यह स्वरूप संसार के लिए एक उदाहरण होगा। इस सृष्टि में फिर से कोई मेरी तरह भ्रम का शिकार होकर माता और पिता को एक-दूसरे से अलग समझने की भूल न करेगा। मैंने इतना अपराध किया फिर भी आपने मेरे ऊपर अनुग्रह किया। अब मैं एक जीवंत उदाहरण बनकर सदैव आपके आसपास ही रहूंगा। भक्त की यह बात सुनकर महादेव और माता पार्वती प्रसन्न हुईं। अर्द्धनारीश्वर स्वरुप धारण किए हुए माता पार्वती और शिवजी ने तुरंत भृंगी को अपने गणों में प्रमुख स्थान दिया।
भृंगी चलने-फिरने में समर्थ हो सकें इसलिए उन्हें तीसरा पैर भी दिया। तीसरे पैर से वह अपने भार को संभालकर शिव-पार्वती के साथ चलते हैं। अर्धनारीश्वर भगवान ने कहा- हे भृंगी तुम सदा हमारे साथ रहोगे। तुम्हारी उपस्थिति इस जगत को संदेश होगी कि हर जीव में जितना अंश पुरूष है उतनी ही अंश है नारी।